II "श्री कौलान्तक पीठाधीश्वर श्रद्धेय महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज की लघु गाथा" II
कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के बारे में बताना...बहुत ही असंभव कार्य है....ये ठीक ऐसा ही है कि  कोई कहे सागर को गागर में भर लाओ....ऐसा कार्य तो केवल कोई बाजीगर..या जादूगर ही कर सकता हैं....लेकिन यदि मैं कुछ न कहू तो और भी मूर्खता होगी....अपनी बुद्धि से जो समझ सका वो ही कहने का प्रयास करता हूँ....गलतियों पर आप ध्यान न दे कर...मुझे क्षमा करते रहें....ये गाथा शुरू होती है सन1983से  जब श्री  कृष्ण जन्माष्टमी का त्यौहार मनाया जा रहा था.....संभवतया 23अगस्त की रात थी......रात के समाप्त होते होते ब्रह्म मुहूर्त में जन्मे करोड़ों साधकों के नयनो के प्रखर सूर्य...."महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज".....मानो कोई अद्भुत सा परिवर्तन मौन प्रकृति में कहीं हुआ हो....जिसकी भनक कुछ हिमालय के दिव्य सडकों को लग गयी....जैसे मानो उनको दैव प्रेरणा से कोई महासन्देश प्राप्त हुआ हो....प्रकृति भी शान्त थी......सुबह के अंधकारमय बादलों से प्रकाश की पहली किरणे नीचे झाँकने लगी....जो हिमालय पुत्र के आने की सूचना लिए थी....
 महायोगी जी का धरा पर जन्म मानो नयी प्रभात का सुख  
 मानो किरणें हिमालय को छू कर कोई सन्देश दे रही हों
 वो दिन भी आम दिनों की तरह ही गुजर गया....लारजी नाम की वो जगह हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला में है....बस कुछ घरों का छोटा सा गाँव...जहाँ पैदा हुए महायोगी......मह्योगी के पैदा होने की सूचना कहा जाता है कि  तत्क्षण हिमालय में बैठे "महागुरु कौलान्तक पीठ शिरोमणि प्रातः स्मरणीय श्री सिद्ध सिद्धांत नाथ जी महाराज" को मिल गयी...भारत में स्थित हिमालय के योगियों के प्रताप को कौन नहीं जानता....पीठ शिरोमणि नाथ गुरु....सूर्य योगी होने के कारण बिना भोजन पानी के 22 वर्ष की आयु से हिमालय में  स्थित "खण्डाधार" नामक पर्वत श्रृंखला में कही गुफा में समाधिस्थ थे.....वे कई वर्षों से मानव जाती से दूर रहे....बिलकुल अकेले समाधिस्थ.....यही परम सिद्ध योगी ही महायोगी जी के गुरु बने....लेकिन उनहोंने महायोगी जी के जन्म लेते ही समाधी तोड़ दी और महायोगी के कुछ बड़ा होने तक प्रतीक्षा करने लगे....इधर शिशु महायोगी का नामकरण हुआ सत्येन्द्र......कुम्भ राशी....शतभिषा नक्षत्र....लेकिन गावं में महायोगी जी की दादी को नाम बहुत जटिल लगा....सत्येन्द्र कहने में बहुत बल लगता था तो उन्होंने कहा की घर पर ये नाम बिलकुल नहीं चल सकता......मैं इसे सतीश कह के बुलाऊंगी....आसान लगता है........फिर सहमती हुयी की असली नाम तो सत्येन्द्र ही होगा.....क्योंकि कुल पुरोहित ने रखा है टाला नहीं जा सकता....पर घर में ये नया नाम भी चलेगा....फिर गांव के बाताबरण में ही महायोगी पलने बढ़ने लगे......
 महायोगी जी के गाँव में चरने जाता भेड़ बकरियों का समूह  
 महायोगी जी के पैतृक गाँव में पारंपरिक पशुपालन प्रचलित है  
महायोगी जी के पैतृक गाँव का नाम है "धाराखरी"जो कुल्लू में है....ये गाँव सड़क से तब बहुत ही दूर था....घंटो की सीधी चढ़ाई चढ़ कर ही गाँव के लोग अपने घरों तक पहुंचते थे.....खेती ही प्रमुख पेशा था.....लेकिन महायोगी जी के पूज्य पिता भारतीय डाक बिभाग में पोस्टमास्टर के पद पर तैनात है....लेकिन पारंपरिक खेती अभी भी प्रचलित हैं....पहाड़ों की अति क्लिष्ट जीवन शैली बड़ों-बड़ों  का साहस पस्त कर देती है.....लेकिन महायोगी जी की माता खेती बाड़ी के कामों  में अति कुशल थी इसी कारण खेत खलियानों में खेलते हुए......महायोगी धीरे धीरे बड़े होने लगे....यहीं से महायोगी जी के अन्दर "वैदिक कृषि" का अंकुरण हुआ....महायोगी जी के जन्म से पूर्व ही उनके दादा स्वर्गवासी हो चुके थे...इसलिए संयुक्त परिवार जिसमे महायोगी के चाचा भी थे साथ ही रहते थे और घर की मुखिया थी महायोगी जी की दादी माँ.......जिनकी आज्ञा मानों "राज आज्ञा"ही  हुआ करती थी....लेकिन उनको महायोगी जी से विशेष स्नेह था....इस तरह एक बड़े परिवार जिसमें कई सदस्य और भी थे के बीच महायोगी जी पले.....बस उस गाँव की दो बहुत बड़ी समस्याएँ थी....पहली सड़क......सड़क तब न होने के कारण कई बीमार और घायलों को बचाया नहीं जा सका.....लेकिन अब एक कच्चा सड़क मार्ग सन 2009में ही  बन कर तैयार हुया है............साथ ही पानी की समस्या......पानी की दो ही प्राचीन "बाबाड़ियाँ" थी.....क्यूंकि पहाड़ों पर कुंए नहीं होते.....उनमेसे भी एक तो गर्मियों में सूख ही जाती....केवल एक में ही पानी रहता था.....
 महायोगी जी का गाँव धाराखरी जहाँ केवल 15 -20 घर ही हैं
 सबसे नीचे सफेद रंग का घर ही महायोगी जी का पैतृक घर है  
गाँव के पीछे सूखा गहरा नाला और खाई है.....लेकिन फिर भी पूर्वजों नें इस स्थान को इसलिए चुना क्योंकि इस जगह पर "तोतला पीठ" है...."माँ तारा" का एक रूप हैं "माँ तोतला".....साथ ही गाँव के पीछे "जोगिनीगंधा" नाम का दिव्य पर्वत हैं.....जिसकी देवी "माता भ्रामरी"है....जो मधुमख्खियों के रूप में दर्शन देती हैं.....और महायोगी जी का यह घर हिमालयन पद्धति से बना पारंपरिक घर है...जो बहुत बड़ा....चार मंजिलो का घर हैं......जिस घर की स्वामिनी "हंसकुंड" की योगिनी शक्तियां हैं.....और इस गाँव के मालिक देवता "खहरी"नाम के यक्ष हैं....इसी कारण गांव का नाम "धाराखरी"पड़ा...यहीं वो पानी की "बाबडी" भी है......जो इसी यक्ष की प्रसिद्द बाबड़ी है.......जिसका नाम है "खरीबाई".........ये सब ऐसा लगता है मानो की हम कोई रामायण महाभारत की कोई कहानी पढ़ रहे हों......लेकिन ये सब सच है और आज भी ये सब जगहें ऐसी की ऐसी ही हैं.....यकीन नहीं होता ! ये रही यक्ष महाराज जी की बाबड़ी
 "खरीबाई" जिसका पानी गाँव में पाप बढ़ने पर सूख जाएगा  
 पानी की बाबड़ी में बाईं और "खरी यक्ष" की मूर्ती दिख रही है  
यही वो पानी की बाबड़ी है जहाँ से महायोगी जी पानी बर्तनों में उठा कर अपने घर ले जाया करते थे....इस बाबड़ी के देवता यक्ष ने कहा है की जब इस गाँव में पाप अधिक हो जाएगा तो वो पानी रोक देंगे....साथ ही इस गाँव में "वनशिरा"नाम के देवता भी रहते हैं.....जो बनो की रक्षा करने वाले देवता माने जाते हैं.....उनका मंदिर भी इसी गाँव में है....तो महायोगी जी ने ऐसा बातावरण बाल्यकाल से देखना समझना शुरू कर दिया था की वे पूर्ण ज्ञान पा सकें.....पारिवारिक पृष्टभूमि यदि देखें तो महायोगी जी के दादा कुलदेवता "श्री शेषनाग जी"की सेवा में ही आजीवन समर्पित रहे.....महायोगी जी का पैतृक घर उनके परदादाओं ने बनाया है.....इतना पुराना होने के बाद भी ये घर अभी तक जीवंत ही है....आइये में आपको इस पहाड़ी शैली के चार मंजिला मकान के दर्शन करवा दूँ.....
 यही है महायोगी जी का धाराखरी गाँव में पुराना पैतृक घर  
 इस तरह के  मकान को "काठकुनिया" मकान कहा जाता है  
बातों-बातों में ये बताना तो मैं  भूल ही गया कि जब महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज तीन बर्ष कुछ माह के हुए ही थे कि एक दिन उनके पिता जी के पास एक लम्बे कद का लम्बी दाढ़ी मूछों वाला साधू आया....और कहने लगा कि तुम्हारे घर पर एक बालक पैदा हुआ है.....जिसके बांये  पांव के अंगूठे के नीचे रेखाओं का गोल चक्र है....वो मेरा पिछले जन्म का शिष्य है....मुझे उसे देखना है......तब तक महायोगी जी के माता पिता ने भी बालक के पाँव के नीचे के चक्र को नहीं देखा था.....जब देखा तो बहुत ही हैरान हुए.....और वो साधू कहने लगा कि यह बालक उनको सौंप दिया जाये.....भला कोई माता पिता किसी के केवल इतना कहने से अपना बालक सौंप देंगे क्या?उनहोंने साधू को समझाया......लेकिन साधू नहीं माना....जिस कारण दोनों पक्षों में तनातनी हो गयी.....अंततः इस बात पर निर्णय हुआ कि बालक साधू को नहीं दिया जायेगा.......लेकिन बालक को दीक्षा दे कर साधू का शिष्य बनाया जायेगा.....ये साधू कोई और नहीं स्वयं "महागुरु कौलान्तक पीठ शिरोमणि प्रातः स्मरणीय सिद्ध सिद्धांत नाथ जी महाराज"थे.....इस तरह तीन वर्ष कि आयु में ही महायोगी जी हिमालय कि सिद्ध परम्परा में दीक्षित हो गए....महागुरु का कोई चित्र नहीं है.....केवल एक मात्र रेखाचित्र ही है जिसकी महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज पूजा करते हैं.....यहाँ मैं वो चित्र दे रहा हूँ ताकि दादागुरु जी कि छवि का कुछ अनुमान आपको भी हो सके.....
 कौलान्तक पीठ शिरोमणि प्रातः स्मरणीय श्री सिद्ध सिद्धांत नाथ जी महाराज
  कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के प्रथम गुरु महाराज  
महायोगी बिधिवत दीक्षित हो गए और उनकी गुप्त साधनाएँ तभी से थोड़ी-थोड़ी शुरू हो गयी....यहीं महायोगी जी को मिला महागुरु से टंकारी लिपि....भूत लिपि.....देव लिपि....आदि का ज्ञान.....क्योंकि महागुरु हिंदी आदि लिपियाँ नहीं जानते थे इसलिए महायोगी जी को ये लिपियाँ सीखनी पड़ी.....योग,ज्योतिष, तंत्र, मंत्र, वास्तु, कर्मकांड, यन्त्र, आयुर्वेद, वेद-पुराण, उपनिषद सहित तंत्र ग्रंथों का महायोगी जी ने क्रमशः अध्ययन किया....और सात वर्ष कि छोटी सी अवस्था में महायोगी जी अपने गुरुदेव जी के साथ पहली बार हिमालयों कि श्रृंखलाओं में साधना हेतु गए.....बस तभी से हिमालय के विराट योगी बनने का सफर शुरू हो गया.....महायोगी जी अपने बाल्यकाल में उत्तरांचल जो तब इस नाम से अस्तित्व में नहीं था.....सहित जम्मू कश्मीर के क्षेत्रों में स्थित हिमालयों पर अपने गुरु के साथ साधना करने जाते रहे...हिमाचल...लेह लद्दाख.....सहित सारे क्षेत्रो कि हिम श्रृंखलाएं बालक महायोगी जी के पावन सान्निध्य कि गवाह बनीं.....महायोगी की कठोर साधनाएँ संपन्न होने लगी.....उनको घनघोर तप करता देख महागुरु ने उन्हें....अन्य गुरुओं के पास जाने को कहा....फिर महायोगी जी क्रमशः 38परम  दिव्य गुरुओं कि शरण में ज्ञान लेने गए....और साधना पथ पर निखरते चले गए......यहाँ ये बताना आवश्यक है कि महागुरु के तीन और शिष्य भी थे जिन सबमें महायोगी जी सबसे छोटे थे......सबसे बड़े गुरु भाई का नाम "किरीट नाथ"...फिर "प्रगल्भ नाथ".....फिर शंभर नाथ.....और सबसे छोटे "सत्येन्द्र नाथ".....सबसे तीब्र बुद्धि और पूर्व जन्म के तेज के कारण महायोगी जी साधनाओं में निष्णांत होते चले गए....आइये बाल महायोगी जी के दर्शन करें......  
 बालक रूप में कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी जी महाराज   
 महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज की मनभाविनी बाल छवि
महायोगी जी का ज्ञान इतना विस्तृत है की कोई भी कल्पना नहीं कर सकता......मुझे याद है कि जब मैंने महायोगी जी को पहली बार देखा था तो....सोचा कि ये कैसा युवक है जो इतना बड़ा दावा करता है कि वो हिमालय का योगी है...मन ही मन हँसी आ रही थी.....कमजोर शरीर देख कर ऐसा लग रहा था कि कहीं खरोच न लग जाए......क्योंकि महायोगी जी का रंग गोरा होने के कारण वे बिलकुल नाजुक से प्रतीत होते हैं......यही कारण है कि कोई उनको देख कर ये मानने को तैयार नहीं होता कि वो इतने बड़े योगी हो सकते हैं.....मैंने तो सोचा था कि जीवन में असली योगी मिल ही नहीं सकता......लेकिन आज जान गया हूँ कि हमारे मन में जो कल्पना है.....हम उसे ही ढूढ़ते रहते हैं...और वो कल्पना ही होती है उसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं होता....जब मुझे महायोगी जी के साथ हिमालय पर रहने का सौभाग्य मिला तो जान पाया कि महापुरुष कैसे होते हैं.....आराम परस्त जीवन जीते-जीते मुझे भी आलोचना करते रहने कि आदत पड़ गई थी.....अब पता चला कि कि छोटा सा टिला भी नहीं चढ़ सकते....तो कहाँ महायोगी खून जमा देने वाले हालातों में भी खुश और ऊँचे पर्वतों के शिखरों पे ऐसे सजते हैं कि मानो वो पर्वत बने ही महायोगी जी के लिए हो.....ये मेरा सौभाग्य है कि मैं उनका सेवक हूँ.....ईश्वर जन्म जन्म मुझे महायोगी जी के साथ रखे.......वास्तविक धर्म को खोजने वालों को जब सब ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखने लगा तब इस घनघोर अन्धकार में दैव प्रेरणा से नया प्रकाश हुआ है........
 कलियुग के अन्धकार में महायोगी रुपी दिव्य ज्ञान सूर्य का प्राकट्य  
 जैसे सूर्य प्रकाशित करता है वैसे ही महायोगी भी प्रकाशित कर रहे हैं ज्ञान प्रकाश   
गुरुओं से ज्ञान ले कर व कठोर तप की प्रक्रिया से गुजर कर ही महायोगी जी दिव्य प्रखर सूर्य बन पाए हैं....लेकिन महायोगी जी कि सिद्धियों,तप और साधना की बातों को लोगो से बहुत छुपा कर रखने का प्रयास किया गया....क्योंकि कुल्लू में इस तरह की परम्पराएँ प्रत्यक्ष नहीं हैं.....वहां केवल "देउली"नामक धार्मिक लोक परम्परा को ही लोग मानते है....आधुनिक गुरुवाद भी कुछ कथित शहरियों द्वारा ही वहां फैलाया गया....जो विशेषतया अपने किसी गुरु या संगठन के प्रचार के लिए वहां आये थे....जिन्हें वास्तविकता का भान ही नहीं लेकिन समझते है की वो अध्यात्म में सर्वोपरि हो गए....लेकिन शायद ये सब कहने का अधिकार मुझे महायोगी जी नहीं देंगे....वो कहते हैं की सबको ईश्वर नें उनके स्तर के अनुरूप ही गुरु भी दिए होते हैं....अगर गुरु का स्तर ज्यादा ऊँचा हो जाए तो शिष्यों को गुरु ही ढोंगी लगने लगता है....इसलिए केवल उच्चकोटि का साधक बिना कुछ बोले ही समझ जाता है....कुल्लू की घाटियों में दिव्य साधक केवल गुप्त रूप से ही साधक ऐसी साधनाओं को करते है.....लोग योगी हो जाने को अच्छा नहीं मानते ......लेकिन धीरे धीरे लोगो को ये बात पता चल गई...महायोगी जी कभी जंगलों में कभी ऊँचे पर्वतों पर होते हैं...जहाँ कुछ गड़रियों ने उनको देख लिया था और उनहोंने ही ये रहस्य जनता के सम्मुख खोला......धीरे धीरे नृत्य,गायन,श्रृंगार सहित.......हठ  योग.......वेद वेदांग में पारंगत हो महायोगी जी 64कलाओं में संपन्न हो गए.....और इस दौरान महायोगी जी की अनेक सिद्ध योगियों से मुलाक़ात हुई....जिनसे सत्संग का लाभ भी महायोगी जी को प्राप्त हुआ....लेकिन हिमालयों में रह पाना आसान नहीं था...और प्रकृति के इतने विरुद्ध जा कर रहने के कारण महायोगी जी का स्वभाव बहुत ही उग्र हो गया.....लम्बे समय तक अकेले रहने के कारण वे ज्यादातर गंभीर दिखने लगे...बर्फ का सामना कर पाना सरल नहीं होता यदि आपको लम्बे समय तक वहां अकेला रहना पड़े....ऐसे में महायोगी जी को महागुरु ने दी "महाचंद्रायण"पूर्ण करने की आज्ञा.....ये तो जले पर नमक जैसा हो गया....क्योंकि "महाचंद्रायण"का अर्थ होता है....दस माह सोलह दिन तक अपने अतिरिक्त किसी दूसरे मानव को न देखना और निर्जन हिमालय पर बिना बस्त्रों के दिगम्बर अवस्था में रहना......और आपको जान कर हैरानी होगी की तब महायोगी जी की आयु केवल 14वर्ष थी और कुछ ही समय पहले महायोगी जी भयंकर जहर के प्रभाव को झेल चुके थे.....
 मंदिर सहित सर्वत्र हिमपात से भर चुका दिव्य साधना स्थल  
 महायोगी जी केवल ऐसे जनशून्य स्थान को ही साधना हेतु चुनते हैं  
दरअसल महायोगी जी के गुरुभाइयों से महायोगी जी बहुत आगे हो चुके थे और वो आयु में महायोगी जी से काफी बड़े भी थे....इसलिए उनके मन में कलियुग का क्षणिक प्रवेश हो गया....ईर्ष्यावश उनहोंने एक शाम महायोगी जी की सब्जी में पहाड़ी "काला महुरा"नाम का एक भयंकर  जंगली औषधि का पौधा डाल दिया.....जो वास्तव में कालकूट नाम का विष होता है.....अबोध महायोगी अपने सभी बड़े गुरु भाइयों को बहुत प्यार करते थे.....और वे इस तरह के कृत्य की कल्पना भी नहीं कर सकते थे....उनहोंने सब्जी के साथ साथ विष का सेवन कर लिया.....और भोजन करने के कुछ ही समय बाद महायोगी जी के पेट में बहुत तेज दर्द होने लगा....वो असहनीय पीड़ा इससे पहले कि ठीक हो पाती या उस पर महायोगी जी नियंत्रण करते....खून की उल्टियाँ होने लगी.....दुर्भाग्यवश उसी दिन महागुरु भी साधना के लिए दूसरे पर्वत पर गए हुए थे.....महायोगी कि ऐसी हालत देख कर गुरुभाइयों को बड़ा पश्चाताप हुआ.....उनहोंने महायोगी को बता दिया कि उनहोंने केवल तंग करने के उद्देश्य से ये काम किया था....क्योंकि महायोगी आयुर्वेद के ज्ञाता थे वो जान गए कि अब तो जिन्दा बच पाना मुशिकल ही है.....वो अपने माता पिता को याद करने लगे....तभी उनके एक गुरु भाई "शंभर नाथ"ने उनको पीठ पर उठाया और....रात भर चल कर महायोगी जी को सैंज नामक स्थान तक पहुँचाया....जहाँ से महायोगी जी अपने घर पहुंचे....और फिर कुल्लू अस्पताल में दाखिल करवा दिए गए....बचने कि उम्मीद कम होने के कारण उनको चंडीगढ़ भेज दिया गया......रास्ते में महायोगी "कोमा"में चले गए उनके साथ उनके माता पिता थे....ये तो भला हो कि महायोगी जी ने सब्जी का स्वाद अच्छा न होने के कारण उसे पूरा नहीं खाया....अन्यथा दो घंटों में ही ब्रह्मलीन हो जाते....क्योंकि उत्तरी भारत में दिल्ली से पहले चंडीगढ़ ही बड़ा अस्पताल वाला स्थान है....वहीँ महायोगी जी को होश आया....तो उनहोंने अपने आप को जीवित पाया....
 महायोगी जी ने अपने जीवन के डूबते सूर्य को देख लिया  
 महायोगी जी इसके बाद फिर कभी पूर्ण स्वस्थ न हो सके
हालाँकि ये बात माता-पिता से छुपा कर रखी गयी.....लेकिन पूज्या बहन मञ्जूषा जी ने अब महायोगी जी कि उपचार के दौरान बनी पूरी फाइल अपने पास सुरक्षित रख ली है....महायोगी जी कि जान तो बच गई लेकिन नयी समस्या पैदा हो गयी....उनको तभी से ले कर आज तक शरीर के किसी भी भाग में कोई न कोई समस्या रहती ही है.....लेकिन प्रमुख समस्या तो ये थी कि जहाँ उनको कोई चोट लगती वहां से खून बहता ही रहता वो बंद ही नहीं होता था....इस समस्या का निदान स्वयं महायोगी जी के दिव्य आयुर्वेद गुरु "पूज्य श्री वेद मुनि जी महाराज" नें आयुर्वेदिक औषधियों से किया....गिरते स्वास्थ्य को महायोगी जी ने योग साधना से नियंत्रि कर रखा है.......इसी बीच दो बहुत ही बुरी घटनाएं हुईं....जिन्होंने महायोगी जी पर बहुत नकारात्मक प्रभाव डाला....महायोगी जी के पैतृक घर में एक गाय थी जिसे महायोगी जी अक्सर घास डालते, पानी डालते और अपने हाथों से सहलाते थे.....और गौ माता भी बालक का प्रेम देख कर चुपचाप खड़ी रहती...महायोगी कभी सींगो से खेलते कभी पूंछ से.....लेकिन एक दिन सुबह दादी जी ने बताया कि मैंने गांव से कुछ लोग बुलवाए हैं....गाय मर गयी तो वो दूर नाले में दवा देंगे....उनहोंने वैसा ही किया....चुप चुप कर महायोगी जी भी उनको देखने गए....उनहोंने गाय को दवाया नहीं बस नाले में फेक दिया....घर पर महायोगी बता न सके....अन्यथा पूछा जाता कि तुम वहां क्या करने गए थे....दूसरे दिन दोपहर को महायोगी फिर उसी स्थान पर पहुंचे....तो देखा मरी गौ को गिद्ध नोच रहे हैं.....इस बात से उनको बहुत परेशानी हुई....अब वो रोज वहां जाने लगे....मुह पर कपडा रख कर सड़ांध से बचने का प्रयास करते......अंत में केवल गौ का अस्थि पिंजर ही रह गया......बहुत ही भयानक अनुभव था......जिस गौ माता का दूध पिया वो ऐसी हो गयी.....जब बुरा होना हो तो साथ ही होता है....अपने घर पर ही महायोगी चिड़ियों को दाना डालते थे.......एक दिन उसी स्थान पर एक मरी चिड़िया दिखी......अब महायोगी विचलित हो गए.......उन्होंने महागुरु के पास जाने का मन बनाया......
 महायोगी जी को चिड़िया कि मृत्यु ने बहुत ही परेशान कर दिया  
 वे महागुरु से मृत्यु कि वास्तविकता जानने कि जिद करने लगे  
महायोगी जी को लगभग चार दिनों कि कठिन पैदल हिमालय यात्रा कर महागुरु को खोजने निकले क्योंकि महागुरु किसी भी एक स्थान पर नहीं रहते....इसलिए हिमालयों में उनको ढूढ़ पाना अत्यंत जटिल कार्य हैं.....पर्वतो पर भटक भटक कर आखिरकार जब महायोगी जी महागुरु से मिले तो उनहोंने मृत्यु के विषय में प्रश्न किया और.....जिद करने लगे कि ये रहस्य जाने बिना वो आगे कोई साधना तप करेंगे ही नहीं......महागुरु ने बहुत समझाया कहा कि तुम्हें पुराणो का ज्ञान आदि मृत्यु विषयक जानकारियां दी जा चुकी है....अतः अपने विवेक से काम लो.....लेकिन न जाने किस प्रेरणा के अधीन हो कर महायोगी जी टस से मस नहीं हुए उनहोंने सारी साधनाएँ रोक ली....महागुरु ने कहा इसका केवल एक विकल्प हैं......वो है पूर्व जन्म देखना.......फिर तुम प्रश्न नहीं करोगे...लेकिन ये सब बहुत दुखदायी है.....तुम इसी दुनिया में रह कर भी इसका आनद न ले पाओगे....तुम्हारे जीवन में एक समस्या पैदा हो जाएगी....कभी कभी तुम कृत्रिमता और वास्तविकता में अंतर नहीं कर पाओगे.....लेकिन महायोगी थे कि कोई कुछ भी कहे बस उनको तो जानना ही था.....क्रोधित हो कर महागुरु ने महायोगी पर "ब्रह्मपात" किया....और महायोगी मूर्छित हो गिर पड़े.....पांच दिन और रात लगातार मूर्छा कि अवस्था में महायोगी जी ने सब कुछ जान तो लिया पर शायद इस घटना से उनको सुख कि बजाये और दुःख पहुंचा.....कोई नहीं जानता कि उन्होंने क्या देखा.......पर महायोगी जी के आयुर्वेद गुरु परम पूज्य  "वेद मुनि"जी के अनुसार महायोगी जी के पिछले जन्म का शरीर "ममी"के रूप में अभी भी हिमालय में ही है.....क्योंकि कौलान्तक संप्रदाय को मानने............
 हिमालय पर खड़ी चट्टानों पे चढ़ते महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी
 हिमालयों पर महायोगी की होती है साधनामय विशेष बेशभूषा  
वाले योगी समाधी में जाने से पूर्व कुछ ऐसी तैयारियां कर लेते थे कि उनका शरीर दो तीन हजार सालों तक क्षत-विक्षत हालत में ही सही पर पड़ा रहता था......महायोगी जी के कुछ सौभाग्यशाली शिष्यों में से मैं भी एक हूँ जिसने हिमालय में उनका ये शरीर देखा है......लेकिन महायोगी जी से यदि इन विषयों पर चर्चा कि जाए तो बड़ी ही कुशलता से बात टाल देते हैं......जिद्द कर यदि हम पूछें तो इनकार कर देते है कि वो इस बारे में कुछ नहीं जानते......लेकिन पूर्व जन्म को देख कर क्या हुया...ये सब अभी तक राज है.....किन्तु जब कभी महायोगी जी क्रोधित हो कर कुछ शिष्यों को लताड़ते हैं...तो उनके मुह से अस्थिरावस्था में निकलता है कि "मेरा तो पूर्व जन्म पर से विश्वास ही उठ गया है"......यानि कि कहीं कुछ तो है.....पर कोई बताना ही नहीं चाहता.....मैं इसी कारण भारत के योगियों से कभी-कभी लड़ने का मन बनाता हूँ कि अगर वास्तव में ऐसा कुछ है तो जनता को क्यों नहीं बताया जाता.....इससे मानव जाती का कल्याण ही होगा...विज्ञान के सामने बातें आएँगी तो वो भी सच्च खोजने का प्रयास करेंगे.....पर ये तो मेरे निजी विचार है.....महायोगी जी कि कल्पना कृपया आप ऐसी न करे कि वो क्रोधित नहीं होते होंगे....बहुत शान्त ही हैं....या रामायण के किसी ऋषि कि तरह उपदेश ही देते रहते होंगे....घास कि कुटिया होगी....धोती पहने,माला पहने कुछ शिष्य आश्रम में घूम रहे होंगे....क्योंकि लोग कहते है कि संत को क्रोध नहीं करना चाहिए....और महायोगी जी करते भी नहीं हैं....लेकिन माया फैलाने के लिए ये सब किया जाता है......जिसे मूढ़ नहीं समझ पाते और निंदा करना शुरू कर देते हैं.....इसी कारण लोग नकली संतों के बनावटी चहरे देख कर धोखा खा जाते हैं....और असली को वे ठुकराते हैं......पर शायद ये जरूरी है ताकि ऐसे दिव्य योगी सांसारिक उलझनों से दूर रह सकें.....इसीलिए परमात्मा ने ऐसी व्यवस्था कर राखी है......हिमालय में साधक बर्ग उनको "महाभिमानी अतिक्रोधी ईशपुत्र सत्येन्द्र नाथ महायोगी"कहता हैं....ऐसा क्यों? कृपया  ये आप मत पूछियेगा ......वास्तविक योगियों कि यही रीत होती है.........
 आयुर्वेद गुरु श्री वेद मुनि जी कि गुफा के सामने महायोगी  
  महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी रक्तबस्त्र में गुफा के बाहर खड़े हैं   
महायोगी जी के परिवार को महायोगी कि बहुत चिंता रहा करती थी कि बिना बताये लम्बे लम्बे समय तक महायोगी पर्वतों पर न जाने कहाँ-कहाँ चले जाया करते थे.....महायोगी जी के बारे में जब लोगों से परिवार सुनता कि वो हिमालय के उस बर्फीले इलाके में नजर आये तो माता पिता का गला सूख जाता था.....कोई माँ अपने पुत्र को ऐसी हालत में कभी नहीं देखना चाहेगी....पिता ने सुख सुबिधायें देने में कोई कोर-कसर भी नहीं छोड़ी थी....फिर भी महायोगी जी थे कि परिवार कि ओर ध्यान ही नहीं दे पाते थे.....जब महायोगी जी कि शिकायतें बहुत बढ़ गयी कि लडके को वहां इतनी बर्फ में मत भेजो मर जाएगा....गलेशियर में या पहाड़ी धसने से कई लोग मर चुके हैं....जैसे  वाक्यों से परिवार का तनाव और बढ़ गया.....उनहोंने महायोगी जी को लगातार जाने से मना कर दिया.....लेकिन फिर भी महायोगी जी भाग-भाग कर चले जाते......जिस कारण घर में विवाद बढ़ने लगा....घर पर हर रोज झगड़े होने लगे....माता पिता आपस में ही लड़ जाते कि तुम  तो समझा सकते हो.....मेरी राय में ये था भी उचित ही दुनिया के सबसे अच्छे माता-पिता अपने बच्चों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं.....लेकिन वो नहीं जानते थे कि उनहोंने जिस पुत्र को जन्म दिया है....ये कोई आम पुत्र नहीं.......करोडो लोगो का प्रिय हिमालय का सबसे बड़ा योगी है.....पर शायद ममता और पिता का स्नेह ये सब नहीं देखता.......यहाँ ये बताना बहुत ही आवश्य है कि महायोगी जी का एक छोटा भाई है.....जो सदा महायोगी जी के साथ ही रहा करता है......महायोगी जी के साथ हिमालय भी गया है.....महायोगी जी से दीक्षा ले कर उनका शिष्य बन गया......केवल एक यही परिवार में सहारा होता था.......
 इन शिखरों पर शीत ऋतू में केवल महायोगी ही रह सकते हैं  
 इससे भी कई गुणा ऊँचे पर्वतों पर महायोगी का डेरा होता है  
कुछ ही दिनों में महायोगी जी को महागुरु का बुलावा आया....महायोगी जी अभी-अभी आसाम से लौटे थे......महागुरु ने ही उनको तंत्र और अघोर विद्या का अध्ययन करने भेजा था.....वहां एक साधारण से गांव में एक स्त्री जिनको महायोगी जी "माँ ज्येंद्रा भैरवी" कहते हैं....के पास गए थे.....जो महायोगी जी कि गुरु हैं....लेकिन इतनी गुप्त हैं कि वहां के गांव के लोग तो क्या परिवार के लोग भी नहीं जानते कि उनके घर में रह रही स्त्री कोई साधारण स्त्री नहीं....तंत्र और अघोर कि सबसे ऊँची प्रतिमूर्ति है.....जो अपनी दिव्य क्षमताओं के कारण महागुरु को जानती है.....जबकि कभी हिमाचल आई ही नहीं......मैं अधिक नहीं बता सकूँगा....महायोगी जी के 38दिव्य गुरु है.....सबके बारे में यहाँ जिक्र करूँ ये संभव नहीं है.....महायोगी जी ने जाना कि तंत्र मन्त्र के नाम पर बलि शराब स्त्री गमन आदि घटिया बाते तो तंत्र में है ही नहीं....क्योंकि पहले ही तंत्र का नाम आने से महायोगी ने आसाम जाने से इनकार कर दिया था.....लेकिन महागुरु ने कहा तुम जा कर देखो.....तुम्हारा भ्रम टूट जायेगा.....और ऐसा ही हुआ...मैं बात कर रहा था कि महागुरु का बुलावा आते ही उनसे मिलने महायोगी जी हिमालय गए.....महागुरु ने उनको समाधिस्थ होने कि आज्ञा दी और कहा योग को बहुत ज्यादा सीख गए हो अब जीवन में उतार कर देखो.....महागुरु कि आज्ञा पा कर महायोगी जी "लाम्बालाम्भारी" नाम के शिखर पर गए और समाधिस्थ हो गए जहाँ पहली बार बिना मल-मूत्र त्यागे एक ही आसान पर महायोगी जी तेरह दिनों तक समाधिस्थ रहे......जब इतनी लम्बी समाधी के बाद उठे तो जीवन कि धारा को एक बार फिर बदला हुआ पाया....इतना लम्बा समय बिना भोजन-पानी,मल-मूत्र के रह सकने कि अद्भुत क्षमता ने साधना जगत में महायोगी जी को और कुशल बना दिया.......हालाँकि महायोगी जी इतना बताना भी उचित नहीं समझते.....ये तो उन लोगो का भला हो जो महा योगी जी के साथ लगातार रहे और उन योग्य शिष्यों का जिन्होंने एक एक घटना को प्रमाण सहित संजोया.....
 सदा साधना और तप में लीन रहने वाले महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी  
 शीत ऋतू की बर्षा में भीग कर भी साधना के लिए जाते हुए महायोगी जी  
ये बात भी लोग अच्छी तरह जानते हैं कि महायोगी जी को केवल बारह वर्ष कि आयु में ही गुरु पदवी पर महागुरु ने बिठा दिया था....और तभी से कुछ साधक महायोगी जी के शिष्य बन गए और उनके साथ रहने लगे....कुछ साधू और सन्यासियों ने तो ये दावा तक किया कि वो महायोगी जी के पूर्व जन्मों के शिष्य हैं....महायोगी जी के घर के सामने जमघट लगा रहता....परिवार को महायोगी जी कि स्कूली शिक्षा कि चिंता होती रहती थी....लेकिन कोई उपाय ही नहीं था...इन साधकों को परिवार वालों ने गाली-गलौच कर भगाया भी लेकिन......दो-तीन दिनों में ही फिर आ जाते...समस्या कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी.....एक ओर जहाँ कुल्लू में स्थित देवताओं के सामने होने वाली बलि प्रथा को रोकने के प्रयास के कारण जहाँ सामाजिक रूप से महायोगी के अनेक शत्रु तैयार हो गए थे.....वहीँ क्षेत्र का जातिवाद महायोगी के परिवार पर भारी पड़ने लगा......महायोगी जी के कई शिष्य जाति में बहुत छोटे होने और स्वयं महायोगी जी के उच्च कुल में होने के कारण साथ सहभोज एवं पूजन, यज्ञ, साधना का विरोध होने लगा....महायोगी जी के परिवार को विरादरी कि चुनौतियों का सामना करना पड़ा.....जिस कारण महायोगी जी ने घर छोड़ कर बाहर रहने का निर्णय कर लिया....ताकि परिवार को कोई परेशानी न हो.........यही सोचकर महायोगी शिष्यों सहित  "बालीचौकी "नाम कि जगह पर ही माता काली कि प्राचीन गुफा में रह कर तप करने लगे....यहीं महायोगी जी को "माता रानी" ने साधारण स्त्री के रूप दर्शन दिए.....और महायोगी जी से प्रसाद मांग कर ले गयीं.....लेकिन काफी देर तक उनको पता ही नहीं चला....जब तक भान होता देर हो चुकी थी.....अब तो इस घटना ने महायोगी जी पर नया जनून सवार कर दिया कि मुझे मातारानी से मिलना है.....महायोगी जी ने भोजन त्याग कर वहीँ साधना करनी शुरू कर दी......मंत्र जप करते रहते......यज्ञ करते रहते......लेकिन बात न बन सकी.....महायोगी कमजोर होते चले गए....उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा....
 बालीचौकी स्थित प्राचीन गुफा में माता की तत्कालीन प्रतिमा
 इसी गुफा में महायोगी जी ने काफी समय तक रह कर तप किया
कहा जाता है कि यक्षिणियों....की सिद्धि महायोगी को जन्मजात  थी....जोगिनियों की कृपा से महायोगी हिमालय के सबसे बड़े योगी बने थे......कौलान्तक पीठ की अधिष्ठात्री देवी माता कुरुकुल्ला  की सिद्धि ने महायोगी को मानवीय सीमाओं से परे कर दिया था........पर माया थी कि महायोगी को अस्थिर किये जा रही थी....महायोगी जी कि ऐसी हालत हो गयी कि अब वो बैठ ही नहीं प् रहे थे.....माता-पिता भी बेटे कि ऐसी हालत देख कर गुफा दौड़े चले आये.....महायोगी जी यहीं से पवित्र हंसकुंड तीर्थ की चौदह दिनों की यात्रा पर चले गए....ऐसी हालत में जाना सबको मंजूर नहीं था...पर हठयोगी के सामने किसकी चलती....महायोगी जी यात्रा पर नंगे पवन निकल पड़े....और अनेक कष्टों से भरे मार्ग को पार करते हुए दिव्य हंसकुंड तक पहुंचे....और वहां से भी ऊपर सकती नाम के पर्वत शिखर तक पहुंचे.....जहाँ दो दिन की साधना कर महायोगी जी पुन: घर की और लौटे....लेकिन घर आने के लिए नहीं बल्कि उन दो दिनों की साधना ने महायोगी जी को और भी तंग कर दिया था....महायोगी जी घोर तप का निर्णय मन ही मन कर चुके थे....अपने संकल्प को पूरा करने के लिए....पहले महायोगी जी घर लौटे....यक्शिनियों का आवन कर उनको पूछा की बताओ माता के दर्शन कैसे हो सकते हैं....उनहोंने कहा की इसके लिए तो घोर तप करना होगा....महायोगी जी ने कहा मैं तैयार हूँ....यक्शिनियों ने ही बताया की महायोगी जी आपको इसके लिए "गरुडासन" पर्वत पर जा कर ही साधना करनी होगी ये स्थान तो काफी दूर था....महायोगी ने कहा ये तो जोगनियों का दिव्य स्थान है....महायोगी जी पहले भी वहां जा चुके थे....अब महायोगी जोगिनियों का आवाहन करने लगे.......जोगिनियों ने महायोगी को कहा की तुम निश्चिन्त हो कर आओ हमारे रहते तुम्हारा बाल भी बांका नहीं हो सकता......महायोगी जी ने आपने कुल देवता श्री शेष नाग जी की अनुमति ली....साथ ही माता तोतला जी की भी......अपने सभी पूर्वजों को प्रणाम कर आशीर्वाद माँगा....लेकिन जाने से पहले दो बड़ी अड़चने सामने आ गयी......
 हिमालय की अति वशिष्ठ एवं पवित्र दिव्यतम हंसकुंड पर्वत घाटी  
   इसी महाहिमनद के बायीं और है हिमालय का दिव्य हंसकुंड  
पहली अड़चन तो ये थी की महायोगी के पैतृक घर के साथ वाले पर्वत "जोगिनीगंधा"की देवी भ्रामरी  इसके लिए मान नहीं रही थी और साथ ही......"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"भी आज्ञा नहीं दे रही थी महायोगी जी जानते थे कि "सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली" को मनाना बहुत ही आसान है......लेकिन  "जोगिनीगंधा" पर्वत की देवी भ्रामरी सरलता से नहीं मानने वाली....तो पहले महायोगी जी इसी परवत पर चले गए....इस पर्वत पर साधना के लिए बैठते ही बबाल शुरू हो गया......गांव कि मान्यता के अनुसार यहाँ कोई रात को नहीं रहता सदियों से कोई रहा भी नहीं था...लोग इस स्थान को बहुत ही पवित्र मानते हैं....लेकिन महायोगी जी के दिन-रात वहां रहने के कारण लोग भड़क गए....और समूह बना कर महायोगी जी को धमकाने पहुंचे लेकिन महायोगी जी ने उनको कड़ाई से कह दिया कि वो बिना साधना पूरण किये कदापि नहीं जायेंगे....कहा जाता है कि इस देवी के क्षेत्र कि रक्षा कोई "लंगड़ाबीर"नाम का देवता करता है....जो भालू या शेर जैसा रूप बना कर लोगों को मार देता है....लेकिन जो हिमालयों और बनो का सम्राट हो उसको भला क्या भय.....महायोगी जी करीब सात दिन वहां रहे और अन्तत:,करुणामयी माता प्रसन्न हुई....उनहोंने आकाश मार्ग से महायोगी जी को मौली बस्त्र का टुकड़ा....और कुछ दिव्य पुष्प दिए.......
 जोगिनिगंधा पर्वत का आधार से लिया गया सम्पूर्ण चित्र  
 आज भी ये स्थान चमत्कारों से परिपूर्ण यथावत ही विद्यमान है  
आप सोच रहे होंगे कि ये तो बिलकुल ही अवैज्ञानिक बात है कि हवा में कोई चीज कैसे आ सकती है....ये वहां के लोगों के लिए चमत्कार नहीं सैंकड़ों लोगो के सामने होने वाली मामूली सी दैविक क्रिया है.....यहाँ का बच्चा-बच्चा इस तथ्य को भली भांति जानता है........सैंकड़ों लोग  इसके प्रत्यक्षदर्शी भी है......महायोगी जी  इस स्थान से लौटते  हुए....ही"सुवर्णकारिणी माता देवी चवाली"के बन में स्थित मंदिर में पहुंचे....इस माता का बन छोटा सा ही है लेकिन वहां के बृक्षों को कोई लोहा नहीं लगता.......जंगल कटा नहीं जाता इसी कारण बचा हुआ है....इसी बन के मध्य से बहुत ही ऊँचाई से पानी का झरना गिरता है....इस झरने कि जहाँ से शुरुआत होती है वहीँ माता जी का छोटा सा मंदिर है.....वहां पहुँच कर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी ने माता को केवल स्तुति करके ही प्रसन्न कर लिया....माता चवाली ममतामयी कोमल हृद्या हैं.....यही वो देवी हैं जिनके पास  मृतसंजीवनी एवं पर्णी नामक बृक्ष भी है.....जिससे सोना बनाया जाता है जैसी दिव्य औषधियां हैं....लेकिन मान्यता के अनुसार इन औषधियों को अदृशय रखा गया है....माता कि कृपा से ही ये प्राप्त हो सकती हैं.....महायोगी जी माता का आशीर्वाद ले......अपनी "गरुडासन पर्वत" कि महासाधना के लिए अब तैयार थे........
  चवाली माता का झरना जिसके मुहाने पर स्थित है माता का मंदिर  
  यहाँ दो झरने है दूसरा माता कि कृपा से कभी कभी चलता है  
 महायोगी जी कठिनतम यात्रा कर गरुडासन पर्वत तक पहुंचे....और और शुरू की अपनी सबसे बड़ी साधना......इस साधना के बारे में मैं नहीं बता सकता....जानता तो हूँ पर यही महायोगी जी के जीवन का सबसे अहम् पड़ाव है....इसी पर्वत पर महायोगी जी को माता रानी के न केवल दर्शन हुए बल्कि आज तक जो इतिहास में सुना भी नहीं गया.....मातारानी के साथ लगभग तीन घंटों से अधिक कि अवधि तक महायोगी जी रहे लेकिन महायोगी नहीं जानते थे कि वो किस से धर्म चर्चा कर रहे हैं....अंतिम कुछ क्षणों में माता ने स्वयं ही कह दिया....कि तुम मुझसे मिलने यहाँ आये थे....तो देख लो मैं ऐसी हूँ.....और करीब सात मिनट तक वहां रह कर देवी ने बिदा ली....आप ये कल्पना करने न लग जाएँ की कोई आठ भुजा वाली मुकुट धारण किये शेर पर सवार हो कर प्रकट हुई और अदृशय हो गयीं......ऐसा कुछ नहीं हुआ......महायोगी जी 26 दिनों तक बिलकुल भूखे रहे होंठ और चमड़ी जगह जगह से फट गयी थी बहुत ही तेज बुखार हो रहा था.....दो दिनों से महायोगी हिले तक नहीं थे.....अब महायोगी जीने की उम्मीद छोड़ चुके थे.....ऐसे में उन्हें मूत्र त्याग की इच्छा हुई....घसीटते हुए कुच्छ दूरी तक गए.....कुछ बूँद मूत्र त्याग किया.....वापिस कन्दरा की और लौटने लगे तो बेहोश हो कर गिर गए.....तभी एक गांव की महिला वहां जड़ी बूटियाँ ढूढती हुई पहुंची....उसने महायोगी को उठाया और पानी पिलाया....फिर लताडती हुई पर्वत के ऊपर ले गई क्योंकि ठण्ड के कारण महायोगी जी का शरीर अकड़ गया था....ऊपर धूप थी.....वहां धूप में लिटा कर महायोगी जी से घर का पता पूछने लगी और कहने लगी की तुम यहाँ अकेले क्या कर रहे हो...जानते नहीं की यहाँ खतरा है...इतनी ऊंचाई पर तो जानवर भी जिन्दा नहीं रहते....जब महायोगी जी ने कहा की वो माता भगवती को मनाने के लिए आये हैं...तो वो औरत कहने लगी माता तो दिल में होती है..आत्महत्या करके नहीं मिलेगी अपने घर चले जाओ....लेकिन महायोगी बोले की मैं जानता हूँ कि दिल में प्रेम और भक्ति होनी चाहिए पर शायद इतना काफी नहीं....इसी तरह समय तीन घंटे बीत गए....जब महायोगी जी बातो मैं ही उलझे रहे तर्क पे तर्क देते रहे......तो उस औरत ने अपनी गोद से गर्म तजा प्रसाद निकाल कर महायोगी जी को दिया और बोली देखो लो मैं ऐसी ही हूँ.......महायोगी को उस स्त्री कि बातों मैं सच्चाई नजर आई.....महायोगी जी ने अपनी दादी को बताते हुए कहा था कि दादी जी पता नहीं क्यों मुझमे उस औरत कि बात काटने का सहस ही नहीं रहा...वो जो कहती गई मैंने मन....लगा मानों सचमुच
 आम जीवन में अति साधारण दिखते हैं महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी  
 महायोगी जी का मनमोहक युवा रूप बहुत ही आकर्षक प्रतीत होता है
वो ही आदि जगदम्बा है......जैसे ही हल्का सा बोध हुआ.....आँखों से आंसू बहाने लगे मैं दहाड़ दहाड़ कर रोने लगा....उनके सीने से लग कर रोता रहा....पलट पलट कर उनको देखता.....उनको छू कर देखा....उनहोंने कहा मैं सदा तुम्हारे साथ ही हूँ.....कुरुकुल्ला कि प्रतिमा का निर्माण करो.....रथ बनायो......(पहाड़ी कुल्लवी शैली कि प्रतिमा को रथ कहा जाता है)....फिर माता उठी और कहने लगी ये प्रसाद तुम्हारे लिए...और मैं खड़ा हो गया.....वो उठी हाथ मैं डरती थी...और पहाड़ कि दूसरी और जाने लगी.....दिल तो कर रहा था कि मैं रोकू.....लेकिन हिल ही नहीं पा रहा था....थोड़ी देर मैं ठंडी हवा के झोंके ने अहसास दिलाया तो पहाड़ी कि तरफ भागा....दूर दूर तक कोई नहीं था....यहाँ तक कि जंगल तो बहुत ही दूर थे केवल नग्न रिक्त परवत ही था....महायोगी काफी देर रोते रहे.....अचानक हसने लगे...उनको याद आया कि शायद बुखार दिमाग मैं चढ़ रहा है या इतने दिनों से भूखे होने के कारण मौत से पहले हेल्युसुनेशन हो रहा है....भला ऐसा कैसे हो सकता है कि अभी माता आई थी.....अपने को महायोगी जी ने बहुत समझाया....लेकिन तभी हाथ पर रखे प्रसाद पर नजर गई.....जिसकी गर्मी हाथों को महसूस हो रही थी.....महायोगी जी ने प्रसाद ग्रहण किया.....लेकिन आज तक भी महायोगी इस बात को मान ही नहीं पाए कि सचमुच वो भगवती ही थी....लेकिन महागुर को इस बात का पता चलते ही वो भी गरुडासन पहुंचे......महायोगी इतना होने पर भी भ्रम ही मान रहे थे....तो साधना आगे जारी रखने कि जिद्द पर अड़े थे......महागुरु के समझाने बुझाने पर ही लौटे....हम सब तो यही मानते है कि वो भगवती ही थी......केवल महायोगी जी को छोड़ कर....दादी जी का भी यही माना था.....देवी कुरुकुल्ला कि काल एक धातु प्रतिमा ही थी.....जो प्राचीन है....लेकिन बड़ी मूर्ति जिसे रथ कहा जाता है...तैयार नहीं किया गया था....घर आने के तकरीबन 6सालों के बाद ही महायोगी ने अपना वादा पूरा कर कुरुकुल्ला देवी का रथ बना कर तैयार करवाया....धन का अत्यंत अभाव होने के कारण महायोगी जी माता की प्रतिमा को मनोवांछित स्वरुप नहीं दे पाए लेकिन भविष्य में धन कि व्यवस्था होने पर ऐसा करेने का मन बना माता कि मूर्ती को तैयार किया गया......आप भी जगतकल्याणी  माता कुरुकुल्ला जी के दर्शन कर लीजिये......
 कौलान्तक पीठ में स्थित माता कुरुकुल्ला कि अस्थाई प्रतिमा  
 इसी प्रतिमा को माँ भगवती का दिव्य देवी रथ भी कहा जाता है
कहते हैं कि कलियुग में कोई भी अति पवित्र हो ये हो ही नहीं सकता......जब रजा परीक्षित जैसे महारथी भी कलियुग से बच न सके तो अन्यों कि विसात क्या....यही सोच कर महायोगी अपने महागुरु के पास गए....और उनसे कहने लगे कि मेरे जीवन में न जाने क्या क्या घटा हैं....मन:स्थिति जितना संभालना चाहूँ रह रह कर फूटती है.....मुझे लगता है कि पर्वतों को रौंद दूँ....आकाशों में उड़ जाऊं....संसार में जितने लोग पाप फैला रहे हैं उनको जा कर सबक सिखाऊं......पता नहीं क्यों दुनिया में कमिय ही बहुत नजर आती हैं......महागुरु ताड़ गए कि कुण्डलिनी शक्ति के उर्धवमुखी गति के कारण इस तरह के बाव पैदा हो रहे हैं.....महायोगी जी को महागुरु ने कुछ दिन अपने पास ही ठहरने को कहा....लेकिन महायोगी जी कि बैचैनी बढ़ती ही गयी....यहाँ ये बताना आवश्यक है कि महायोगी जी निद्राजई हैं......अपनी नींद पर उनका मनचाहा नियंत्रण है......लेकिन बैचैनी के कारण उन्हें....कुछ होने लगा...हाथ पाँव कांपने लागे....शरीर पर नियंत्रण नहीं रहा....कभी जोर-जोर से साँसे भीतर खींचते....तो कभी बाहर छोड़ देते....भस्त्रिका प्राणायाम कि भांति सांस लेते-लेते अचानक जमीन पर लोट-पोट होने लगते....कूदते...चिल्लाते....जोर-जोर से हँसते....फिर रोने लग जाते.....जब हालत बहुत ही ख़राब हो गए तो महागुरु ने एक बड़ा पत्थर नाले के पास देख कर महायोगी जी को कहा कि इसे गुफा तक ले जाना था पर कैसे हममेसे तो कोई भी इसे हिला नहीं सकता....तुम्हारे बाकि गुरुभाइयों को भी कहना पड़ेगा....कह कर महागुरु गुफा कि और चले गए...महायोगी जी के अन्दर शक्ति का उबाल सा आ रहा था....महायोगी जी ने उस पत्थर को पलटना शुरू किया....अकेले ही वो भी चढ़ाई में...खुद पत्थर के नीचे...मानों आत्महत्या करने का पूरा बंदोबस्त कर रखा हो......पर मने नहीं पलते गए...तबतक बाकि गुरु भाई भी पहुँच गए और पत्थर को गुफा तक ले गए......पत्थर पर बल लगा कर महायोगी जी को बहुत ही शांति अनुभव हुई....जैसे ही बैचैनी बढ़ती महायोगी जी पत्थर पलटना शुरू कर देते....फिर महागुरु ने महायोगी जी के सर पर बर्फ के पानी से भीगा हुआ कपड़ा रखा....और पावन को आग से गरम करने लगे....दोनों गुरुभाइयों ने हाथ कस कर पकड़ लिए....और दो गुरुभाई चिकनी मिटटी जिसमें कुछ औषधि मिली हुई थी महायोगी जी के पीठ पर रगड़ने लगे......महायोगी कि हालत मरते हुए प्राणी जैसी हो गयी....लेकिन कुच्छ देर बाद महागुरु ने नेत्रों से महायोगी जी पर शक्तिपात किया...और महायोगी जी योग निंद्रा कि अवस्था में चले गए....इस तरह महायोगी जी
 हिमालय में एक सूखे छोटे वृक्ष पर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी  
 महायोगी बहुत ऊँचे ऊँचे वृक्षों पर वन्य प्राणियों की भांति चढ़ जाते हैं  
को अद्भुत कुण्डलिनी जागरण का रहस्यमयी लाभ प्राप्त हुआ.....महायोगी जी उठे और त्रिबंध लगा कर घंटों समाधी में बैठने लगे.....अब महायोगी जी कि चलने कि गति अचानक बहुत तेज हो गयी....काम करने कि गति भी बहुत तेज हो गयी.....बात भी महायोगी जी जल्दी जल्दी करने लगे....स्वभाव में इन परिवर्तनों ने महायोगी जी को बदल कर रख दिया....धीर गंभीर महायोगी चपल हो गए....हसने खिल खिलाने लगे....बहुत बोलने भी लगे....अब महागुरु ने उन पर अंकुश लगाने के लिए सबसे विचित्र उपाय निकाला....ये उपाय था कि महायोगी जी को ऐसे बस्तर पहनाये जाएँ जिनमे स्त्रियों के गुण हों....ताकि महायोगी जी के भीतर उमड़ रहे पुरुष को अति पुरुष होने से रोका जा सके.....अन्यथा महायोगी पेड़ कि छोटी पर होते.....कभी पहाड़ी के बीच में....कभी ऊँची छलांग लगा रहे होते...नदियों में कूद पड़ते....यहाँ तक कि चारो ओर आग जला कर बीच में बैठ जाते....सापों को पकड़ लेते....जंगल से गीदड़ पकड़
 बाल्यकाल में महायोगी जी जंगल से गीदड़ पकड़ कर ले आते  
 तो कभी जहरीले साँपों को पकड़ कर उनसे खेलते रहते थे
कर लाते.....अब क्या क्या बताऊँ....ऐसी ऐसी माया है कि बताई भी नहीं जा सकती.....इस घटना के कारण जंगली जीवों से महायोगी जी कि मित्रता हो गयी...एक बार तो महागुरु को इतना क्रोध आया कि महायोगी जी कि डंडे से खूब पिटाई हुई....महायोगी जी सबसे ऊँचे देवदार के बृक्ष पर चढ़ गए ओर सबसे ऊँची टहनी पर पाँव मोड़ कर रस्सी से बांध दिए और उलटे लटक गए.....यदि थोड़ी सी चूक हो जाती तो गहरी खाई में जा गिरते....जहाँ से हड्डियाँ लाना भी संभव नहीं था....महागुरु ने खूब लताड़ा और कहा ये हाल हैं हिमालय के सबसे बड़े योगी के.....और मार मार कर हड्डियाँ ढीली कर दीं....कहा तुमारा काम जीवो की रक्षा करना है न की उनको प्रताड़ित करना......तबसे जंगली जानवरों को शायद रहत मिली....ये महागुरु का ही दिया संस्कार है की आज महायोगी जी वन्य प्राणियों के संरक्षक के रूप में मने जाते हैं......लेकिन कुछ चीजों पर शायद कोई खास असर नहीं हुआ.....महायोगी जी अब भी छुप-छुप कर बड़े-बड़े पत्थरों और चट्टानों पर चढ़ते रहते हैं.....आज का "राक क्लाइंबर" भी शरमा जाए....महायोगी जी को तुरंत औरतों की साड़ी जैसे वस्त्र पहना दिए गए.....जिससे बहुत कुछ अंकुश तो लगा.....पर राज कि बात ये है....कि ये घटना क्रम अब भी जारी हैं......कहते हैं कि महायोगी जी के अन्दर कोई पुरुष रसायन कुण्डलिनी जागरण के कारण अनियंत्रित हो गया है....जिस कारण वो इसी रासायनिक दवाब में आ कर ऐसी-ऐसी दुसाहसिक क्रियाएं करते हैं....पर सत्तर प्रतिशत तो उनको बस्त्रों ने ही रोक रखा है.....हालाँकि बात जंचती नहीं है....पर इससे सिद्ध हुआ की वस्त्र भी जीवन शैली पर गहरा प्रभाव डालते हैं........बाकि गहरी बात तो मनोवैज्ञानिक ही जान सकते है की महागुरु ने ऐसा क्यों किया......ये है महायोगी जी के विचित्र वस्त्रों का असली भेद....हालाँकि अब महायोगी जी  ने इन सब पर काफी हद तक रोक लगा ली है....पर जंगल के शेर के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल ही है....जब भी हिमालय जाते हैं तो फिर पकड़ना स्वप्न ही है....हमें प्रार्थना करते हुए ही कि धीरे चलिए कहते कहते साथ चलना पड़ता है.....
 महायोगी की स्त्रियों जैसी भेष-भूषा जिसे महागुरु ने जानबूझ कर पहनाया
  इन्ही बस्त्रों ने महायोगी जी को समाज में नम्र बनाये रखा  
 महायोगी जी ने एक राजस्थान के बाजीगर से बाजीगरी कि परम्परागत कला भी सीखी....बस जंगलों में कभी हवा में उड़ कर दिखते तो कभी कुछ पैदा कर देते......लोग तो लम्बे समय तक ये ही समझाते रहे कि महायोगी जी हवा में आसन लगाते हैं....वो तो भला हो एक बच्चे का जिसने महायोगी जी से एक सार्वजानिक कार्यक्रम में पूछ लिया कि आप हवा में कैसे उड़ाते हैं.....हममेसे तो कभी किसी कि हिम्मत ये पूछने कि हुयी ही नहीं....तब महायोगी जी ने बड़ी शालीनता से बताया कि वो भी हवा में नहीं उड़ सकते ये सब तो केवल भ्रम  हैं.....भारत में जादूगरी को कौतुक विद्या कहते हैं...जो एक प्राचीन कला है......जिसे उन्होंने सीखा है.....इसलिए मन बहलाने के लिए वो ऐसा करते हैं....लेकिन शायद बच्चा ये सुन कर संतुष्ट नहीं हुआ.....उससे लगा महायोगी जी सच बोलना नहीं चाहते कि वो सचमुच उड़ते हैं....महायोगी जी ने बहुत समझाया पर वो नहीं माना....इससे महायोगी जी को अपनी भूल का एहसास हुआ कि वो जो कुछ करते हैं लोग सच ही मानते हैं......तबसे वो हर कदम सम्भल कर चलने कि कोशिश करते हैं...और उनहोंने कौतुक विद्या का प्रदर्शन बिलकुल बंद कर दिया....
 महायोगी जी का पेड़ के सहारे हवा में उड़ कर दिखाना  
 हवा में कौतुक विद्या द्वारा काफी ऊँचा उठ जाते हैं महायोगी जी
हालाँकि अभी यहाँ ज्यादा फोटो उपलब्ध नहीं हैं.....लेकिन महायोगी जी के कई चित्र बहुत ही अद्भुत है....इस पेड़ के भी महायोगी जी काफी ऊपर तक गए थे लेकिन जब तक कैमरा निकलता ऑन होता महायोगी जी वापिस उतर कर नीचे पहुँच गए थे......लेकिन आप चिंता मत कीजिये एक और चित्र देख लीजिये......महायोगी जी के तो चित्रों के भी भण्डार भरे पड़े हैं......ये सब आपकी आमानत ही तो है......मेरा प्रयास है कि मैं केवल सच लिखूं.......मैं मनाता हूँ कि
महायोगी जी मेरे प्राणप्रिय गुरु हैं.....लेकिन कहीं भी मैं कोई असा तथ्य नहीं देना चाहता जो...तथाकथित हो....हालाँकि बहुत सी बातें भूल गया हूँ.....पर मुझे संक्षेप में ही बताने को कहा गया है......अन्यथा जी तो चाहता है कि बस महायोगी जी का गुणगान करता ही रहूँ....उनके अज्ञात बिबिध रूपों का वर्णन करूँ.....इस चित्र में महायोगी जी काफी ऊपर उठ गए हैं......यहाँ एक प्रसंग याद आया कि जब महायोगी जी स्कूल में पढ़ते थे तो वहां भी महायोगी जी ने अपने सहपाठियों के मनोरंजन के लिए एक जादू का बड़ा कार्यक्रम किया था....जो बहुत ही रोमांचक रहा..
 महायोगी जी का वायु में उठा हुआ दूसरा चित्र जो जंगल में लिया गया  
 ये कोई महायोगी का चमत्कार नहीं केवल बाजीगरी का करिश्मा है  
इस चित्र को देख कर लोगो ने कई तर्क दिए...किसी ने कहा कि लहे कि रद फसा कर फोटो खिचवाई गयी है....किसी ने कहा शयद पेड़ कि टहनी पर ही बैठे हैं.....किसी ने कहा कि कम्प्यूटर कि मदद से बना दिया गया होगा....लेकिन जब महायोगी जी ने कुछ साधकों को समझाने के लिए इसे स्वयं करके दिखाया तो बोलती बंद हो गयी....जबकि वो भी केवल भ्रम ही था....महायोगी जी नें कई साधकों को ये प्रक्रिया सिखाई भी है.....पर अंततः महायोगी जी ने अपने आप को इस क्षेत्र में जाने से रोका.....क्योंकि महागुरु कि फटकार उनको सदा ही याद रहती है......लेकिन थोड़ी देर के लिए यदि मुझे महायोगी जी स्वतंत्रता दें तो मैं भी यही कहूँगा.....कि हे गुरुदेव आप करोड़ों साधकों कि आत्मा हो....उनको केवल आपसे ही आस है कि आप उनको सत्य पथ पर ले जाने में सक्षम हो......तो कृपया अपने लिए न सही......हमारे लिए आप खतरों से सदा दूर रहा करें.....हम आपसे इतना प्रेम करते हैं कि आपको खरोच भी आ जाए तो हम पीड़ा अनुभव करते हैं......ईश्वर आप जैसे पुरुषों को सदा पृथ्वी पर भेजता रहे......हालाँकि महायोगी जी को कुछ नहीं हो सकता सब जानते है.....पर हमारा प्रेम ये सब देख कर करह उठता है.....आप स्वयं ही देख लीजिये कुछ चित्र कि महायोगी जी कहाँ-कहाँ रहते हैं......
 सीधे खड़े चट्टानी पहाड़ पर चढ़ते महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी   
 नीचे गिरने पर महायोगी जी के बचने के कोई आसार नहीं
 बिना किसी सहारे के बृक्षों पे तेजी से चढ़ते महायोगी जी   
 
 ऊंचाई से क्षण भर में ही कूद कर तेजी से दौड़ पड़ते हैं योगिराज  
 महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी प्रकृति में कहीं भी योगासन कर लेते हैं   
 मानों महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के जीवन में भय नाम कि चीज ही न हो
 झरने के तेज पानी के बीचों बीच खड़े हो कर साधना बहुत ही खतरों भरी होती है
 तेज पानी का बहाव कब किसी को लील जाए कोई विश्वास नहीं  
 इस तरह की क्रियाओं को महायोगी जी केवल हड्डियाँ सीधी करना कहते हैं
 महायोगी जी खुली प्रकृति के मध्य बहुत ही प्रसन्न रहते हैं  
 कहीं से भी कूद कर नदी नाले पार करना महायोगी जी की तीब्रता को दर्शाता है
 शायद ही किसी ने योगियों के ऐसे वास्तविक रूप को देखा हो  
 बृक्षों के माध्यम से ही महायोगी एक छोर से छोर तक पहुँच जाते हैं
 काईदार बृक्ष फिसलन भरे होते हैं और भीतर से कमजोर भी  
 महायोगी जी झरने के बीच बैठ कर उद्दियानबंध लगाये हुए  
 मेरा साधना ही सर्वस्व है यही महायोगी जी का मूल वाक्य है  
 इतनी ऊँची टहनी से नीचे देख कर ही सर चक्करा जाये पर महायोगी शान्त  
 दैव प्रेरणा से ही ऐसे योगी धरा पर आते है पर उनको जान पाना जटिल है  
मैं तो फोटोज में ही उलझ गया....ये सब तो आप महायोगी जी की फोटो एल्बम में भी देख सकते हैं.....मेरा कार्य महायोगी जी के बारे में बताना है......मैं केवल ये जाताना चाहता था की महायोगी जी अमूल्य हैं हमें उनकी अमुल्यता को समझाना चाहिए....महायोगी जी को पांडुलिपियों से बहुत सा ज्ञान प्राप्त हुआ.....मौखिक रूप से ही उनको वेदादि का अध्ययन करवाया गया....ज्योतिष के कई रूपों को महायोगी जी जानते हैं.....अनेक प्रकार के ग्रंथों का ज्ञान होने के साथ साथ उसे प्रायोगिक तौर पर भी महायोगी जी ने उतारा हैं......महायोगी जी का बाल्यकाल बहुत ही रहस्यमय रहा....उनके बारे में बताने के लिए यदि मुझे सेवा का मौका दिया जाय तो मैं पूरी पुस्तक ही लिख सकता हूँ.....अभी तक कोई शिष्य कमरा ले कर महायोगी जी के साथ हिमालय की उच्च श्रृंखलाओं तक नहीं पहुँच सका है.....महायोगी जी की सिद्धियों के बारे में कहा जाता है की बंजार नामक जगह के पर्वत "लाम्बा लाम्भारी" की देवियों ने महायोगी को त्रिकाल ज्ञान दिया.....शिकारी (शाकुम्भरी देवी) देवी ने महायोगी को मायावी होने का बरदान दिया....."जोगिनी गंधा पर्वत" की देवी ने महायोगी को शक्ति छुपा कर मानवीय जीवन जीने को कहा.....तभी से महायोगी जी अति मायामय मानवीय जीवन जी रहे है.......महायोगी जी  को सतयुग का वाहक भी कहा जाता है.....राक्षस कुलोद्भूता मायामयी माता हडिम्म्बा ने महायोगी को कहा की वे अपना दुर्लभ ज्ञान कभी भी पूर्णतया प्रत्यक्ष न करे....केवल योग्य साधको एवं धर्मनुयाइयो को ही ये ज्ञान दें.....यही कारण है की......बहुत से लोग महायोगी को जानने उनके पास पहुंचे लेकिन उनकी माया को बहुत कम लोग भेद  पाए..... वे धर्म अध्यात्म की मूल बात न कर साधक को सदा तब तक उलझा कर रखते हैं.....जबतक की साधक पर यकीन न हो जाए...योग्य न होने पर महायोगी उसे छोड़ देते हैं......इसके पीछे क्या रहस्य है ये अभी तक नहीं पता......आम तौर पर संत या महात्मा चाहते हैं कि लोग उनके पास आयें.....उनके भक्तों कि लम्बी कतारें हों.....उनके पास बड़े-बड़े मंदिर आश्रम और भी न जाने क्या-क्या हो लेकिन महायोगी जी कि ऐसी चाहत ही नहीं है.....वो तो साधको को टिकने ही नहीं देते......जिसने लापरवाही दिखयी....उसकी तुरंत छुट्टी....ऐसे योगी के साथ बिरले शिष्य ही टिक पाते हैं.....और जो टिका रहा....ये बताने कि तो अब आवश्यकता ही नहीं कि उसने महायोगी जी कि कृपा से तथ्य प्राप्त कर लिया.....हालाँकि में सबकुछ नहीं बता पाया.......मुझे आदेश हुए है कि मैं आज ही ये काम समाप्त कर दूँ......काश एक दिन और मिल जाता तो आपको बहुत प्रमुख बातें बतानी रह गयी......लेकिन समाप्त करने से पहले ये जरूर बताना चाहूँगा कि
 महायोगी जी की प्रेममयी सुन्दर मनोहारिणी छवि के दर्शन  
 कोमल बालक कैसे बन गया हिमालय का एक कठोर योगी  
महायोगी जी को इक्कीसवें वर्ष में "कौलान्तक पीठाधीश्वर"बनाया गया......वो भी साधना और ज्ञान में सबसे श्रेष्ट होने के कारण व अनेकों विद्याओं के जानकार होने के कारण....हालाँकि महायोगी जी जगत कल्याण के लिए भी हिमालय छोड़ कर नहीं आना चाहते थे.....वो अपने महागुरु जी सेवा में ही रहना चाहते थे लेकिन.....एक दीं महागुरु ने उनको अपने पास बुलाया और कहा कि अब तो तुम कौलान्तक पीठ के पीठाधीश्वर हो गए हो सारे हिमालय के मालिक भी.....अब क्या इच्छा है?महायोगी जी ने कहा कि माता पिता के लिए कुछ करना चाहता हूँ.....और परिवार के साथ रहूँगा....विवाह करूँगा....और आपकी सेवा.....में हमेशा गुप्त ही रहना चाहूँगा......में नहीं चाहता कि कोई मुझे जाने.......आज जब लोग मुझे जानते तक नहीं तो भी न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं....अगर समाज में गया तो दुष्ट आत्माओं को सहन नहीं हो पायेगा.....महागुरु ने कहा.....तुम्हें कैसे पता कि समाज में दुष्ट आत्माएं हैं......महायोगी जी ने कहा मेरा अनुमान और अभी तक का साथ......गलत महागुरु ने कहा इसी भारतीय समाज में कभी में पैदा हुया था......आज तुम पैदा हुए हो......कल हिमालय किसी और को भेजेगा.....समाज दुष्ट नहीं अबोध है....जिसे हांकते हैं कुच्छ गलत हाथ.....ये हाथ हर क्षेत्र में हैं.....और अगर तुम जा कर सुधरने का प्रयास नहीं करोगे तो तुम्हारा क्या लाभ.....महायोगी जी ने कहा....गुरुदेव मैं ये सब नहीं जानता....बस मैंने जो फिसला किया है वो आपको बता दिया.....महागुरु ने महायोगी जी को समझाने कि हर संभव कोशिश कि कि तुम्हें समाज मैं जाना ही होगा...लेकिन महायोगी जी ने भी कह दिया चाहे जो भी हो जाए.......मैं नहीं जाऊंगा.....ये मेरा काम नहीं......जब बात नहीं बनी तो महागुरु ने कहा ठीक है......तुम्हारी शिक्षा दीक्षा पूर्ण हुई.....तुम आज से मुक्त हो....लेकिन एक नियम हैं....जो तुमको पूरा करना है......महायोगी जी ने पूछा क्या......तो महागुरु ने कहा कि मेरी गुरु दक्षिणा.....महायोगी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए कहने लगे गुरुदेव मेरे पास कुछ भी नहीं है......मैंने तो सब कुछ
 महायोगी जी किसी भी कीमत पर समाज में जाने को तैयार नहीं थे  
 अंततः उनको वही करना पड़ा जिसे वो नहीं करना चाहते थे  
आपसे ही पाया है...मैं भला क्या दे पाउँगा.....महागुरु बोले ये तो नियम है देना ही पड़ेगा....अंततः महायोगी को मानना ही पड़ा....महागुरु ने कहा हिमालय का सन्देश ले कर जगत में जाओ.......जिस कौलान्तक पीठ को लोग भूल चुके हैं उसकी गरिमा याद दिलाओ.....जब तुम्हे लगे कि ये काम पूरा हो गया तो लौट आना.....लेकिन कम से कम पंद्रह वर्षों तक मत लौटना.....यही गुरु दक्षिणा है......हट फिर कर वही हुआ जो महागुरु चाहते थे......चरण स्पर्श कर महायोगी अपने घर लौटे.......अपना सामान उठाया.....अपने एक मित्र से 300रुपये उधर ले कर निकल पड़े अपने "कौलान्तक पीठ" के महा अभियान में.......यहाँ महायोगी जी के बारे में केवल इतना बता सकता हूँ....वे अलौकिक है ......कहते हैं कि महायोगी जी को  पूर्व जन्म का कोई  एक अधूरा  काम भी  पूरा करना है.....जिसकी हमे कोई जानकारी नहीं कि वो क्या है....यहाँ ये बताना बहुत ही जरूरी है कि  महायोगी जी.....सामाजिकता नहीं जानते....इसलिए दुनियादारी में उलझ जाते हैं....उनको कोई भी बातों में फाँस सकता है बड़े ही सरल ह्रदय के हैं...और खुद पर खूब हँसते भी हैं...लेकिन ऐसे में ये बात हम सबको परेशां किये है कि दुष्ट लोगों से हम उनकी रक्षा कैसे कर सकते है......यहाँ ये भी बता दूँ कि सन 2008में महायोगी जी को ट्रक के नीचे कुचलने का प्रयास हो चूका है....2008 में ही उनके भोजन में फिर से विषाक्त तत्व मिला कर उनको मारने का प्रयास किया गया....लम्बे समय तक बिस्तर पर रहने के बाद ही महा योगी जी टीक हो पाए.....फिर 2009में उनको जान से मारे जाने कि धमकियाँ मिलने लगी.....2009में ही उनके वहां पर पत्थरों से हमला किया गया जिसमे महायोगी जी बाल बाल बच गए.......हिमाचल के समाचार पत्रों ने ये खबर बड़ी प्रमुखता से छापीं.....पुलिस में भी मामला दर्ज किया गया है......अब आप ही बताइए ऐसे में महायोगी जी कि रक्षा कैसे हो पाएगी.....लेकिन महायोगी निश्चिन्त हैं....उनको इन सब घटनाओं से जरा भी अंतर नहीं पड़ा.....अपने कार्यों में लगातार जुटे हैं.....सचमुच सिद्ध योगी है इसमें लेशमात्र संदेह नहीं.....आपके मन में ये प्रश्न जरूर उठ रहा होगा कि उन पर हमले होने का कारण क्या है.....वो है समाज के कुछ अराजक तत्वों को बुराई फैलाने से रोकना....इन बातों को आप इसी साईट के नए लिंक में पढ़ सकेंगे......लेकिन अभी तो शुरुआत है.....अभी आगे क्या होगा ये देखना है?ये उन लोगो का सौभाग्य  है जो महायोगी जी के पास रहते हैं......कि वे एक महापुरुष के साथ जी रहे हैं.......समाज के भी कुछ और लोग उनके साथ रहते तो हैं पर माया का पर्दा जो माता भ्रामरी ने ड़ाल रख्खा है उन्हें उनसे दूर रखता है....पर शिव और माता
  श्रद्धेय महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के दिव्य चरण कमलों के दर्शन
 जिन्होंने नदी नालो वृक्षों सहित हिमालय के दिव्य तीर्थों को छूआ है  
के भक्तों से महायोगी नहीं छुप पाते वे उनकी माया तोड़ कर उनको पहचान ही लेते हैं.....कौलान्तक पीठाधीश्वर के रूप में जबसे वे प्रतिष्ठित हुए है.......कौलान्तक पीठ गुप्त  रहस्यों के आवरण से निकल आया है.....आज विश्व इनके कारण ही कौलान्तक पीठ को जान रहा है......वो दिन दूर नहीं जब हिमाचल का कुल्लू क्षेत्र करोडो लोगो के आकर्षण का केंद्र हो जायेगा.....आज ही विश्व के कोने कोने तक ये सन्देश पहुंचना शुरू हो गया है.....हिमाचल के साथ साथ भारत के नाम की धर्म पाताका फिर लहरा रही है......शायद यही महायोगी जी का अति संक्षिप्त परिचय है.....मेरी आप सबसे पुनः प्रार्थना है कि.....यदि कहीं कोई गलती जाने अनजाने हो गयी हो तो आप सब मुझे करबद्ध क्षमा कर देंगे.....हिमालय के ऐसे दिव्य योगी का वृत्तांत लिख पाना या कह पाना सरल नहीं है......पर मैंने चेष्ठ कि है......में कौलान्तक पीठ कि टीम का धन्यवादी भी हूँ कि उन्होंने मुझे इस काबिल समझा कि में श्रद्देय महायोगी जी कि महिमा को चंद शब्द दे सकूँ.........ॐ नम: शिवाय.......
 -योगी लखन नाथ  
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